एक अजब सा सन्नाटा है
जैसे, कोई कुछ बोलना चाह रहा हो
और बोल न पा रहा हो
आँखें तरसती वो देखने को
जो अभी तक रूबरू नहीं हो सका
मैं खुद से पूछता कि कोई आने वाला है क्या?
खुद को सन्नाटे के सिवा कुछ न सुनाई देता
मैं ताकता, मंडराता इस आस में कि कुछ उभर के आएगा
पर इस बेरंग आँख मिचोली में कुछ भी हाथ न लगता
बेबस, नाराज़ जब मैं हार मान कर घर लौटता
तब सन्नाटा बोल पड़ता, और समझाता
"ढूँढने से राम मिलता है, आराम नहीं"